Urdu Poetry- मुनफरीद की कलम से
इश्क़
कोई तो हिज्र (तर्क) दे खुद ही से मुझको
संभाले कोई ख़ामोशी से मुझको
हो चुका हूँ बहुत बदनाम अब मैं
निकाले कोई इस बस्ती से मुझको
मैं खुद को ढूँढता हूँ चार-सू अब
मिला दे कोई अब मुझ ही से मुझको
बड़ी बदनाम है लड़की शहर की
मुहब्बत हो गयी उस ही से मुझको
वो दिल की चारा-साज़ी और ही थी
मिला था दर्द जब उस ही से मुझको
अजब बे-इन्तेहाँ हूँ दूर खुद से
है चाहत वस्ल की किसी से मुझको
ग़मों से हो चुका अफ़्शार अब मैं
बचा ले कोई इस पस्ती से मुझको
भुला दे ग़म ये उसके हिज्र का भी
यही चाहत है अब मस्ती से मुझको
झुकाता सर हूँ इस चाहत से ही मैं
मिले आदाब उस हस्ती से मुझको
बस एक फ़रियाद है उस नाख़ुदा से
डुबोये ख़ुद की ही कश्ती से मुझको
5.
जो यूँ न होता तो क्या होता
सोचो के गर ये मुद्दआ होता
तुम थे तो दरख़्शाँ थी हयात
जो तुम न होते तो क्या होता
मैंने खुद की तलब के खातिर
एक आशियाँ बसा लिया होता
डरता था यूँ की जहाँ मे
न तुम्हारा कोइ गोया होता
नहीं ये एक शब की बात
इश्क़ होता तो बार-हा होता
काश तुम्हें पाने को फिर से
तुम्हारा नक़्श-ए-पा होता
कश्ती पा ही जाती साहिल को मिरी
जो तुमसा कोई नाख़ुदा होता
तुम न होते कभी तो शायद
कहीं दुनिया बसा रहा होता
ज़िन्दगी ख़ुद सँवर जाती मिरी
वक़्त भी तिरा आईना होता
बस यूँही एक खयाल आया
तुम न होते तो दूसरा होता
नदामत ये है उसे फुरक़त से
मैं खूब बहुत खूब रोया होता
एक लम्हा विसाल की खातिर
मैं हर ग़म से गुज़र गया होता
तुम अगर होते पास मेरे
मग़फ़िरत को मैं पा गया होता
School of Economics, Devi Ahilya Vishwavidyalaya, Indore
Leave a Reply